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वाकटक-गुप्त युग : लगभग २२० से ५५० ई तक भारतीय जन का इतिहास (गूगल पुस्तक)

भारतीय इतिहास का कालक्रम के बारे में नीचे जानें :

चिश्तिया सूफी सम्प्रदाय एवं ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती

गुजरात में भी अनेक इतिवृत्त लिखे गये जिनमें ‘रासमाला’, सोमेश्वरकृत ‘कीर्ति कौमुदी’, अरिसिंह को‘सुकृत संकीर्तन’, मेरुतुंग का ‘प्रबंध चिंतामणि’, राजशेखर के प्रबंधकोश, जयसिंह के हमीर मद-मर्दन और वस्तुपाल एवं तेजपाल प्रशस्ति, उदयप्रभु की सुकृत कीर्ति कल्लोलिनी और बालचंद्र की बसंत विलास अधिक प्रसिद्ध हैं। इसी प्रकार सिंधु में भी इतिवृत्त मिलते हैं, जिनके आधार पर तेरहवीं शताब्दी के आरंभ में अरबी भाषा में सिंधु का इतिहास लिखा गया। इसका फारसी अनुवाद चचनामा उपलब्ध है।

आक्रमण के बाद उत्तरी भारत का बहुत सा हिस्सा प्रभावित हो गया था। और इससे उत्तर में कई राजवंशों के परस्पर युद्ध करने से बहुत से छोटे राज्यों का निर्माण हुआ। लेकिन हूँ की सेना ने इसके बाद डेक्कन प्लाटौ और दक्षिणी भारत पर आक्रमण नही किया था। इसीलिए भारत के यह भाग उस समय शांतिपूर्ण थे। लेकिन कोई भी हूँ की किस्मत के बारे में नही जानता था। कुछ इतिहासकारो के अनुसार समय के साथ-साथ वे भी भारतीय लोगो में ही शामिल हो गए थे।

साहित्य श्रेष्ठ ऐतिहासिक उपन्यास चित्रकूट का चातक

लॉर्ड लिनलिथगो ने वाइसराय के रूप में कार्य किया

माधवराव प्रथम की मृत्यु के बाद, मराठा शिविर में संघर्ष हुआ। नारायणराव पेशवा बनने की राह पर थे, हालांकि, उनके चाचा रघुनाथराव ने भी पुजारी बनना चाहा। 

भारतीय इतिहास - प्रागैतिहासिक काल से स्वातंत्रोत्तर काल तक (गूगल पुस्तक; लेखक - विपुल सिंह)

ग्रंथ परिचय भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या एवं हिन्दू प्रतिरोध

तीसरी शताब्दी के आगे का समय जब भारत पर गुप्त वंश का शासन था, भारत का "स्वर्णिम काल" कहलाया। दक्षिण भारत में भिन्न-भिन्न समयकाल में कई राजवंश चालुक्य, चेर, चोल, कदम्ब, पल्लव तथा पांड्य चले

जैन साहित्य भी बौद्ध साहित्य की ही तरह महत्त्वपूर्ण हैं। उपलब्ध जैन साहित्य प्राकृत here एवं संस्कृत भाषा में हैं। जैन आगमों में सबसे महत्त्वपूर्ण बारह अंग हैं। जैन ग्रंथ आचारांग सूत्र में जैन भिक्षुओं के आचार-नियमों का उल्लेख है। भगवतीसूत्र से महावीर के जीवन पर कुछ प्रकाश पड़ता है। नायाधम्मकहा में महावीर की शिक्षाओं का संग्रह है। उवासगदसाओ में उपासकों के जीवन-संबंधी नियम दिये गये हैं। अंतगडदसाओ और अणुतरोववाइद्वसाओ में प्रसिद्ध भिक्षुओं की जीवनकथाएँ हैं। वियागसुयमसुत में कर्म-फल का विवेचन है। इन आगमों के उपांग भी हैं। इन पर अनेक भाष्य लिखे गये जो निर्युक्ति, चूर्णि व टीका कहलाते हैं।

इन अभिलेखों के द्वारा तत्त्कालीन राजाओं की वंशावलियों और विजयों का ज्ञान होता है। रुद्रदामन् के गिरनार-अभिलेख में उसके साथ उसके दादा चष्टन् तथा पिता जयदामन् के नामों की भी जानकारी मिलती है। समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति में उसके विजय-अभियान का वर्णन है। यौधेय, कुणिंद, आर्जुनायन तथा मालव संघ के शासकों के सिक्कों पर ‘गण’ या ‘संघ’ शब्द स्पष्ट रूप से खुदा है, जिससे स्पष्ट है कि उस समय गणराज्यों का अस्तित्व बना हुआ था। मौर्य तथा गुप्त-सम्राटों के अभिलेखों से राजतंत्रा प्रणाली की शासन पद्धति के संबंध में ज्ञात होता है और पता चलता है कि साम्राज्य कई प्रांतों में बँटा होता था, जिसको ‘भुक्ति’ कहते थे।

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